गणतंत्र से नव-गणतंत्र की ओर..

(गणतंत्र दिवस विशेषांक पत्रिका 'जनतंत्र' के लिए संपादकीय लेख) Date: 26 Jan 2022

शासन व्यवस्था के गणतांत्रिक स्वरूप की जड़ें भारतीय इतिहास में बहुत गहरी हैं। गणतंत्र और भारत यह दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। इसका प्रमाण लिच्छवी गणराज्य और  वैशाली गणराज्य में देखने को मिलता है। यही वजह है कि भारतवर्ष को गणतंत्र की जननी भी कहा जाता है।

१९४७ में देश को आजादी मिली और १९५० में संविधान के लागू होने से पूर्णता आई। अब भारत आजाद भी था और एक गणतांत्रिक देश भी। भारत ने संविधान के साथ संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्व मूलक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया। 

भारत में सत्ता का शांतिपूर्ण, सुव्यवस्थित और नियमित हस्तांतरण सभी लोकतांत्रिक देशों के लिए एक नजीर है। विश्व के अनेक देश गणतांत्रिक होते हुए भी गणतंत्र की स्वस्थ परंपरा को नहीं अपना पाए हैं। जिसके परिणामस्वरूप इन देशों में हमें सत्ता के लिए खूनी संघर्ष तक देखने को मिलता है।

गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप में २६ जनवरी १९५० से शुरू हुई यात्रा ने ७२ वर्षों के सुनहरे सफर को तय किया है। गणतंत्र से नव-गणतंत्र की इस यात्रा में भारत ने अनेक तरह की चुनौतियों और परिवर्तनों को स्वीकारा और उन्हें पोषित किया है। 

१९५० में गणतंत्र के जिस रूप को देश ने अपनाया था उसमें समय के साथ कई बदलाव हुए और हमने कई पुराने विचारों को त्यागते हुए नए विचारों को आत्मसात किया है। इस व्यवस्था ने अपने लचीलेपन के स्वभाव के कारण ही आधुनिक समय में अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखी है। इस तरह से हम गणतंत्र से नव-गणतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं। ये बदलाव राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक के साथ-साथ सांस्कृतिक और प्रौद्योगिकी दृष्टि से भी अतिआवश्यक थे।

गणतंत्र भारत के सामने एक लोककल्याणकारी राज्य के रूप में सबसे बड़ी चुनौती मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों के बीच सामंजस्य बिठाने की थी। इस चुनौती का पहला पड़ाव भूमि सुधार कानून था जिसे संविधान के पहले संशोधन के जरिए पूरा किया गया। जिसके परिणामस्वरूप संविधान की नौंवी अनुसूची अस्तित्व में आई। दूसरा पड़ाव था स्वतंत्र भारत के पहले सबसे बड़े सामाजिक सुधार का प्रयास। जिसके तहत हिन्दू कोड बिल आया और राज्य को हिन्दू पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप करने की शक्ति प्रदान की गयी।  

किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए सूचनाओं का निर्बाध प्रवाह सबसे महत्वपूर्ण होता है। अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ प्रेस की स्वतंत्रता भी जरूरी होती है। हालांकि संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने १९५१ में रोमेश थापर बनाम स्टेट ऑफ मद्रास मामले में स्पष्ट करते हुआ कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद १९-१(क) में अन्तर्निहित है।  

केशवानंद भारती मामले को भारतीय गणतंत्र के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जाता है। जिसमें उच्चतम न्यायालय की १३ सदस्यीय पीठ ने निर्णय दिया कि संविधान की मूलभूत संरचना में किसी प्रकार का संशोधन नहीं किया जा सकता। इस निर्णय ने विधायिका की शक्ति को बाँधने का कार्य किया और इस निर्णय ने मनमाने ढंग से होने वाले संवैधानिक बदलावों पर अंकुश लगाने का काम किया।  

भारत ने गणतंत्रता के मात्र २५ वर्षों में ही एक कठिन दौर को देखा जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी गई। प्रेस को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। सरकार ने अपने विरोधियों को जेल में डाल दिया। इस घड़ी में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक जनविरोध की शुरुआत हुई जिसे जेपी आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। इस आंदोलन ने लोगों में नागरिकता का भाव पैदा किया और अंततः १९७७ में आम चुनाव की घोषणा की गई। चुनाव में इंदिरा गांधी सरकार की हार हुई और भारत में पुनः लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना हुई। आपातकाल के दौरान ही ४२वां संविधान संशोधन हुआ जिसे लघु-संविधान भी कहा जाता है। इसके द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना सहित कई अन्य बदलाव किए गए जिनमें से अधिकांश को १९७७ में जनता पार्टी की सरकार ने ४४वें संशोधन द्वारा पुनः अपरिवर्तित कर दिया।

संविधान के ६१वें संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु २१ वर्ष से घटाकर १८ वर्ष कर दी गई जिससे युवाओं को अपनी सरकार चुनने का अवसर जल्दी मिलने लगा। ७३वें और ७४वें संशोधन ने स्थानीय निकायों को स्वायत्तता प्रदान की साथ ही शासन में महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित की गई। १९९० में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने से संबंधित मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर लोकतंत्र को समावेशी बनाने की दिशा में कदम उठाया। 

लोकतंत्र में पारदर्शिता लाने के लिए सूचना का अधिकार भारत की गणतांत्रिक यात्रा में एक मील का पत्थर है। २००९ में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित कर ६ से १४ वर्ष की आयुवर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा की अनिवार्यता की गई। २०१४ के आम चुनाव में देश में पहली बार सोशल मीडिया को राजनीतिक प्रचार का माध्यम बनाया गया। २०१८ में उच्चतम न्यायालय ने २०१३ के अपने फैसले को बदलते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ को असंवैधानिक करार दिया और समलैंगिकता को गैर-आपराधिक घोषित किया। इस फैसले के माध्यम से नागरिकों के एक बड़े समूह के अस्तित्व स्वीकारते हुए भारत के नव-गंणतंत्र ने अपने स्वरूप को साकार किया है।

भारत की वर्तमान साक्षरता दर ७५ फीसदी है। शिक्षा के विस्तार से लोकतंत्र में जन भागीदारी लगातार बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में अपने देश की राजनीति की समझ और उसको लेकर राय रखने वाले लोग भारत में ही सबसे अधिक है। जो बताता कि हमारे देश की जनता लोकतंत्र की सेवक भी है और उसकी रक्षक भी है। भारत का गणतंत्र अपनी जनता के लिए नवीन प्रयोगों को स्वीकार कर नव-गणतंत्र की अवधारणा को प्रबल कर रहा है।

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