साईकिल रिक्शा चालकों की जिंदगी, रोजगार या रोटी की मजबूरी!!

पेट्रोल-डीजल से लेकर नींबू-मिर्ची तक हर चीज के दाम रोज बढ़ रहे हैं। खुदरा महंगाई दर चरम पर है जिससे आम आदमी की जेब पर बुरा असर पड़ रहा है। इसी पर आमलोगों की राय जानने के लिए एक दुपहरी में हम दक्षिणी दिल्ली के मुनिरका गांव पहुंचे। यहाँ हमारी नजर फ्लाईओवर के नीचे आराम कर रहे कुछ साइकिल रिक्शा चालकों पर पड़ी। 

मुनिरका में घरेलू सामान, फर्नीचर, बिल्डिंग मेटेरियल इत्यादि की बहुत-सी दुकानें हैं। इसलिए यहाँ सैकड़ों की संख्या में साईकिल रिक्शा चालक मिल जाते हैं। यहाँ बहुत से रिक्शा चालक ऐसे हैं जो बरसों से यही काम कर रहे हैं, वहीं कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने लॉकडाउन के बाद रोजगार छिन जाने के कारण यह पेशा अपनाया है। इतनी ज्यादा संख्या होने के कारण इनमें प्रतिस्पर्धा भी बढ़ गई है, जिससे रोजगार का संकट बना हुआ है। 

यहाँ ज्यादातर साईकिल रिक्शा चालक प्रवासी मजदूर हैं। इनकी दिनभर की अधिकतम कमाई 500-600 रुपये तक होती है। वह भी तब हो पाती है जब उन्हें दिन में तीन-चार अच्छे राउंड मिल जाए। कभी-कभी दिनभर बिना काम के भी रहना पड़ जाता है। इतनी-सी कमाई में यहाँ गुजारा करना और पैसे बचाकर गांव भेजना एक चुनौती है।

रिक्शा चालक शम्भू का कहना है कि, "महंगाई के बढ़ने से उनके खर्चे तो बढ़े हैं लेकिन आमदनी में कुछ खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। इंजन वाले रिक्शे का किराया तो डीज़ल महंगा होने के कारण बढ़ जाता है लेकिन साइकिल रिक्शे का किराया देते समय लोग ज्यादा मोलभाव करते हैं।"

32 वर्षीय शम्भू पिछले 17 सालों से दिल्ली में रहकर मजदूरी कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब यहाँ आया था तो आगे जीवन के लिए बहुत सपने देखे थे। इतने समय में कई जगहों पर अलग-अलग तरह के काम किए पर कहीं से इतनी बचत नहीं हो पाती कि अपनी इच्छा के अनुसार खर्च कर सकें। शम्भू का मन अब दिल्ली से ऊब गया है। वह चाहते हैं कि वापस अपने गांव लौटकर वहाँ कोई छोटा-मोटा बिजनेस शुरू करें और वहीं परिवार के साथ रहें। इसके लिए उन्हें किसी सरकारी स्कीम से लोन की जरूरत है लेकिन कागजी औपचारिकता पूरी नहीं कर पाने के कारण वह इस योग्य नहीं हैं। 

एक अन्य चालक हरिबंश ने कहा कि "रिक्शे में कई बार लोग किराए के लालच से क्षमता से अधिक सामान लाद देते हैं। इसे खींचने में बहुत ज्यादा ताकत लगानी पड़ती है और गर्मी के दिनों में तो हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती है। हमारी तो रोजी इसी से चलती है इसलिए ग्राहक को मना भी नहीं कर सकते।" 

हरिबंश की उम्र पचास वर्ष के पार है। इस उम्र में भी ये बोझा खींचना उनकी मजबूरी है क्योंकि उन्हें ऐसा कोई और काम करना नहीं आता जिससे परिवार का गुजर-बसर हो सके।

बातचीत के दौरान रिक्शा चालकों ने बताया कि एक साईकिल रिक्शा को बनवाने में 10-12 हजार रुपए का खर्च आता है। बाद में इसका रजिस्ट्रेशन भी कराना पड़ता है। ज्यादातर चालकों के पास अपने खुद के रिक्शा हैं, वहीं कुछ लोग किराए पर रिक्शा लेकर भी चलाते हैं। 

साईकिल रिक्शा कम किराए में आसानी से उपलब्ध होने के साथ-साथ शहर की छोटी और तंग गलियों में भारी सामान पहुँचाने का प्रमुख साधन है लेकिन इसमें शारीरिक श्रम की बहुत ज्यादा जरूरत होती है। लम्बे समय तक यही काम करते रहने से रीढ़ से जुड़ी समस्याएं हो सकती है, जिनके लाइलाज बीमारी बनने का भी खतरा है। 

वैसे तो हम रोजाना ऐसे कितने ही लोगों को साइकिल रिक्शा खींचते हुए देखते हैं पर कभी ठहरकर उनके बारे में नहीं सोचते। बात करते समय वे मुझे इस उम्मीद से देख रहे थे जैसे मैं ही उनकी सारी समस्याओं को हल कर सकता हूँ। उन रिक्शा चालकों से बात करके उनके प्रति मन में एक सहानुभूति तो जगी साथ ही उनकी स्थिति ने सोचने को मजबूर कर दिया।

(ब्लॉग)

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