कब कटेगी चौरासी: 1984 में हुए सिख क़त्लेआम के सच की परतें उधेड़ती एक किताब..

पुस्तक चर्चा: कब कटेगी चौरासी ~ जरनैल सिंह

नवम्बर चौरासी की शुरुआत के वे काले दिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में सिखों के खिलाफ भड़की हिंसा में पाँच हजार से भी अधिक (सरकारी रेकॉर्ड के अनुसार, वास्तविक संख्या इससे कई ज्यादा होने का दावा किया जाता है।) लोगों की जान गई, जिसमें से अकेले राजधानी दिल्ली में तीन हजार से ज्यादा लोगों को मारा गया या जिंदा जला दिया गया।

यह किताब चौरासी के क़त्लेआम से जुड़े कई तथ्यों को उजागर करती है साथ ही उस समय प्रशासन और मीडिया की मौन भूमिका पर भी सवाल उठाती है। इसमें उन उजड़े हुए परिवारों के ब्यौरे दर्ज है जिनके कुछ परिजन किसी तरह बच गए। पेशे से पत्रकार रहे जरनैल सिंह ने उनकी आपबीती सुनकर उन कहानियों को किताब की शक्ल में पेश किया है। पेंगुइन से प्रकाशित इस किताब की प्रस्तावना जाने-माने पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है।

यह किताब बताती है कि जिस समय देश की राजधानी में सिखों को मारा जा रहा था तब देश का एकमात्र टीवी न्यूज़ चैनल 'दूरदर्शन' कैसे सरकारी भौंपू बनकर बज रहा था। शांति की अपील करने की बजाय इस चैनल पर 'ख़ून का बदला ख़ून' के नारे गूँजते रहे। इंदिरा गांधी की हत्या की खबर में 'सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्या' बार-बार दोहराया गया, वहीं सिख क़त्लेआम की कोई भी खबर नहीं दिखाई गई। जिसने सिखों के प्रति नफरत की भावना को और भड़काया और आग में घी डालने का काम किया। पुलिस, प्रशासन और पूरे सरकारी तंत्र ने मिलकर एक कौम के निर्दोष लोगों के खिलाफ चल रही साजिश में साथ दिया और सिखों को मारने के लिए लोगों को उकसाया। 

किताब के मुताबिक चौरासी के सिख क़त्लेआम को सरकारी तंत्र की मदद से सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया था। दंगे भड़काने के लिए पहले अफवाहें फैलाई गई और फिर लाठी-डंडे, हथियार, पेट्रोल-केरोसिन और ज्वलनशील पाउडर सरकारी गाड़ियों से बांटा गया। पुलिस और प्रशासन की मौजूदगी में सिखों को घरों से निकालकर मारा गया। सेना के अधिकारियों के हाथ भी आदेशों की औपचारिकताओं से बांध दिए गए। तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जो स्वयं सिख समुदाय से थे, वे भी अपने आप को असहाय महसूस कर रहे थे। सबकुछ इतना योजनाबद्ध तरीके से हुआ कि कोई चाहकर भी उसे रोक न सका।

यह किताब उस क़त्लेआम में पुलिस और प्रशासन की मिलीभगत को तो उजागर करती ही है, साथ ही मीडिया की संवेदनहीनता पर भी सवाल उठाती है। जैसा कि इसमें बताया गया है, चौरासी के क़त्लेआम की खबर सिर्फ अंग्रेजी अखबार 'द इंडियन एक्सप्रेस' और इसी समूह के हिन्दी अखबार 'जनसत्ता' ने ही कवर की। बाकी अखबारों ने काफी समय तक इस मुद्दे से दूरी बनाए रखी और जब कुछ छापा भी तो इस तरह से कि सरकार पर कोई सवाल न उठें।

इस किताब में कुछ वाकये ऐसे हैं जो पढ़ते हुए झकझोर देते हैं। वहीं कुछ पंक्तियाँ ऐसी जिन्हें पढ़ते हुए पाठक सिहर जाता है।

इसमें उन महिलाओं की कहानियां हैं जिनकी पूरी बस्ती में कोई आदमी जिंदा नहीं बचा। जिनको पुनर्वास के लिए मिली जगह को बाद में 'विधवा कॉलोनी' के नाम से जाना गया। इसमें कहानियां हैं उन लड़कियों और औरतों की जिनके पिता, भाई या पति को दिन में उनकी आंखों के सामने मारा-काटा-जलाया गया और रात में वो उन दहशतगर्दों की दरिंदगी का शिकार बनीं।

इस किताब में उन सिख परिवारों की दास्तान हैं जिनके मुखिया क़त्लेआम में मारे गए और जो पीछे रह गए उनके शोषण में सरकारी तंत्र और नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले उनसे पुनर्वास के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगवाए, फिर उन्हें छोटे से पच्चीस गज के मकान दिए तो कई सालों तक उनमें बिजली-पानी की सप्लाई नहीं दी गई। कभी उन्हें कोर्ट में गवाही से मुकरने के लिए लालच दिया गया तो कभी धमकाया गया। उन परिवारों के बच्चे जिन पर कम उम्र में इतना बोझ आ पड़ा, वे इसे सहन नहीं कर पाए और उनमें से ज्यादातर नशे की भेंट चढ़ गए। इसका सबसे ज्यादा दर्द झेला उन सिख औरतों ने जिनके पतियों को चौरासी में उनके सामने मारा गया और फिर अपने बच्चों को उन्हीं आंखों से नशे की धीमी मौत मरते देखा।

दशकों बाद भी चौरासी के जख्म अब तक नहीं भरे हैं, वे आज भी हरे हैं। उन परिवारों के लिए चौरासी अब भी नहीं कटी है जिनका उस नफ़रत ने सबकुछ उजाड़ दिया। सैकड़ों परिवार आज भी उस टीस के साथ जीने को मजबूर हैं। हजारों आंखें ऐसी है जिनसे आँसूं कभी नहीं सूखते।

यह किताब उन परिवारों के लिए उन पाठकों के मन में संवेदना जरूर पैदा करेगी जो इस क़त्लेआम के बारे में ज्यादा नहीं जानते। जैसा कि खुशवंत सिंह ने इसकी प्रस्तावना में भी लिखा है 'यह किताब उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हों।'

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