तूफ़ानों के बीच: बंगाल के अकाल का मार्मिक चित्रण करता एक रिपोर्ताज

पुस्तक चर्चा: तूफ़ानों के बीच~रांगेय राघव

सन् 1943 ई. के आसपास बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा राज्य) में भयंकर अकाल पड़ा, जिसमें तीस लाख से भी अधिक लोग भूख से मारे गए। इस अकाल के दुष्प्रभाव व्यापक स्तर पर भुखमरी के साथ हैजा, चेचक और मलेरिया जैसी बीमारियों के रूप में सामने आए। इसी बीच बंगाल की जनता को राहत पहुंचाने के लिए आगरा से एक मेडिकल जत्था बंगाल भेजा गया। इस जत्थे का हिस्सा रहे रांगेय राघव ने अपनी उस यात्रा के अनुभवों पर रिपोर्ताज लिखा जो 1946 में 'तूफ़ानों के बीच' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 

Photo: बंगाल के अकाल पीड़ित (साभार-bbc.com)

अविभाजित पराधीन भारत की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस रिपोर्ताज में लेखक की मानवीय संवेदना के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए व्याकुलता भी साफ तौर पर दिखाई देती है। इसमें लेखक ने अकाल और उससे उत्पन्न परिस्थितियों का बेहद मार्मिक वर्णन किया है। अनाज के दाने-दाने के लिए तरसते और भूख से तिल-तिल मरते, हड्डियों के ढाँचों में तब्दील हो चुके लोगों के बीच रहकर एक साहित्यिक मिज़ाज के व्यक्ति की मनोस्थिति क्या होती है और वह क्या सोचता है, यह इस रिपोर्ताज में बखूबी महसूस किया जा सकता है। 

Photo: साभार-reddit.com

बंगाल के गांवों में कच्चे रास्तों और पगडंडियों पर डॉक्टरी जत्थे के साथ चलते हुए लेखक बंगाल की कुदरती खूबसूरती को भी बारीकी से देखता है, जो उसे भूखे लोगों के सामने उपहास-सी दिखाई पड़ती है।

राघव लिखते हैं- 'मुट्ठी भर अनाज है तो इनसान सुकरात है और यदि वही नहीं तो वह क्या नहीं है…?' उन्होंने बंगाल के अकाल को मानवता के इतिहास का बहुत बड़ा कलंक बताया है। राघव मानते हैं कि बंगाल का अकाल प्राकृतिक अवश्य था लेकिन उससे हुई लाखों मौतों की जिम्मेदार ब्रिटिश सरकार की बनाई हुई शोषणकारी नीतियां थी, जिनके कारण बंगाल में अनाज का उत्पादन कम हो गया। जब बंगाल अकाल से पीड़ित था तो ब्रिटिश सरकार जनता पर ध्यान देने की बजाय द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी पूरी ताकत झोंके हुए थी। भूख, युद्ध के सामने गैर-जरूरी हो गई। अनाज के गोदामों पर ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में पलने वाले पूंजीपतियों ने कब्जा कर लिया। कहा जाता है कि इतने भीषण अकाल में भी बंगाल से अनाज बाहर भेजा जाता रहा और वहाँ के लोग भूखे मरते रहे।

मौतों का आलम यह था कि कीड़े-मकोड़ों और इन्सानों की मौत में कोई फर्क़ नहीं रहा। ऐसा कोई घर नहीं बचा जहाँ कोई मौत न हुई हो। लोग रोना भूल चुके थे। किसी को कंधा देने वाला भी कोई नहीं। कदम-कदम पर कब्रें  थी और हर कब्र में एक साथ दो-दो तीन-तीन मुर्दे। 

Photo: अकाल के कारण पलायन करते लोग। (साभार-DNA India)

अकाल था, गरीबी थी, बीमारी थी, भूख थी, बस नहीं था तो अनाज। अनाज के भयंकर संकट से जूझते लोग मुट्ठी भर चावल के लिए भी लड़ने-झगड़ने पर उतारू हो जाते। इन परिस्थितियों में ग्रामीण इलाकों से लोग शहरों (मुख्य रूप से कलकत्ता) की तरफ पलायन करने लगे। गांव के गांव खाली हो गए। आदमी परिवारों को छोड़कर चले गए। माँओं की छाती में दूध नहीं रहा, लाचार बच्चे भूखे मारे गए। औरतों ने पेट के आगे मजबूर होकर आबरू को अपने ही हाथों खोल दिया। पेट ने शरीर का सौदा कर लिया। ऐसी एक औरत के लिए राघव ने लिखा- 'मनुष्य होने के अतिरिक्त वह सिर्फ एक पेट थी।' पेट भरने के लिए इन्सान किसी भी हद तक जाने को तैयार था।

बीमारी से बेहाल और भूख से बेबस लोगों के लिए कोई राहत या कोई सांत्वना अगर कुछ हो सकती थीं तो वो सिर्फ 'मौत' थी। 

Photo: साभार-gmsciencein.com

आगरा से गये डॉक्टरों के दल को बंगाल के लोग 'हिंदुस्तान से आये लोग' कहकर पुकारते हैं। लेखक वहाँ अलग-अलग तरह के लोगों से बात करता है। एक बूढ़ा कहता है, "तुम काहे आ गए इस नरक में? हम तो कहीं जाने के नहीं। तुम अपना देश छोड़कर क्यों आ गए?" एक दूसरा वृद्ध, जो कहता है- "जो देखने लायक था, वह तो ख़त्म हो गया। मगर तुम आए हो, तो देखो, आगे जाने क्या हो?" एक बुढ़िया जो अचरज करती है कि हिंदुस्तान की दिलेर माँओं ने अपने बेटों को इतना दूर (बंगाल) कैसे भेजा होगा। 

वहाँ एक आदमी लेखक से कहता है- "हम चाहते हैं तुम यहाँ की एक-एक क़ब्र से बात करो और हिंदुस्तान के कोने-कोने में जाकर कहो कि जिस ढाके की मलमल एक दिन शंहशाह पहनते थे, आज वहाँ जुलाहे चूहों की तरह मर रहे हैं।"

यात्रा के दौरान एक बार नदी पार करते समय अचानक से तूफ़ान आ जाता है। लेखक की नाव उसमें फंसकर लहरों में डोलने लगती हैं तभी मांझी का किशोर बेटा पानी में कूदता है और नाव को खींचकर किनारे लगाता है। इस घटना ने लेखक को बहुत प्रभावित किया। भय से आशंकित और मृत्यु को बेहद करीब से देखकर बच निकलने के बाद लेखक के मन में देश की आज़ादी के लिए फिर से उम्मीद जगती है। वह सोचता है कि चाहे कितने ही तूफ़ान आ जाएं देश के बेटे एक दिन नाव को जरूर किनारे लगा लेंगे। रिपोर्ताज का शीर्षक लेखक ने शायद इसी वाकये से प्रेरित होकर रखा होगा।

आखिर में राघव लिखते हैं कि "नाव आज दो तूफ़ानों के बीच फँसी है। एक बीत चुका है, एक गहरा रहा है। किन्तु हड्डियों ने पतवार पकड़ ली है, अब क्या है जो गलेगा?" यहाँ दो तूफ़ानों के उनका आशय अकाल और स्वाधीनता के लिए चल रहे संग्राम से है। इस रिपोर्ताज से हम यह अंदाजा भी लगा सकते हैं कि वतन की पराधीनता की पीड़ा एक चिंतनशील व्यक्ति को कितना कचोटती है।

रांगेय राघव हिन्दी में रिपोर्ताज विधा के शुरुआती लेखकों में गिने जाते हैं। उनकी यह किताब हिन्दी में रिपोर्ताज लिखने का पहला सशक्त प्रयास माना जाता है। अपनी स्मृतियों को शब्दों में पिरोकर इस ढंग से पेश कर पाना उन्हीं के बस की बात हो सकती है। 

यदि आप जीवन की वास्तविकताओं से प्रेरित यथार्थवादी साहित्य पढ़ने के शौकीन हैं तो यह रिपोर्ताज अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। यह एक संग्रह योग्य किताब है। आपके बुक शेल्फ में यह रिपोर्ताज एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में हिस्सा बन सकती है।

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